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Wednesday, July 10, 2013

Pyara Devta (2) (in Devnagri Script)

~ प्यारा देवता (२) ~
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कोलीन त्वरित अपने बिस्तर पर से उठ खड़ा हुआ.
वह पूर्णत: नग्न था.
परन्तु उसे कोई चिंता, कोई लज्जा नहीं थी अपनी नग्नता की.
कौन मुर्ख अपने शारीर को छुपायेगा उस प्यारे और प्रेम से उत्कट देवता से, जो इतनी रात को उसकी मुलाकात को आ रहा हो.
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वह दरवाज़े पर जा कर खड़ा हो गया.
और दस्तक होते ही उसने दरवाज़ा खोल दिया.
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अपोलो-देवता सामने उसके द्वार पर खडे थे.
उनका वस्त्र चमक रहा था.
किसी अलौकिक आभा और कान्ति से दमक रहा था.
मगर वह शरीर, जिसके उपरी हिस्से को वह ढांक रहा था, वह शरीर तो जुलिअस का ही था.
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"मैं आ गया हूँ.." -उन्होंने कोलीन से कहा.
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"पधारिये स्वामी, आपका स्वागत है..क्या मैं आपकी सेवा में कुछ मदिरा अर्पण करू ? "
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"अभी नहीं .. हाल तुरंत तो द्वार को बंध कर लो अच्छे प्रकार से, ताकि हमें किसी प्रकार की खलल या बाधा न हो.."
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"ख़ुशी ख़ुशी करूँगा, मेरे देवता.." -कहते हुए कोलीन ने दरवाज़ा फिरसे बंध कर दिया.
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जब वह पीछे मूड कर वापस आया तब तक, अपोलो ने अपने एक कंधे पर लगा हुआ वह बक्कल निकाल दिया था, जो के उसके उस तेजोमय वस्त्र को जकड कर रखे हुए था.
अब वह चमकीला वस्त्र निचे, उसके पैरों के पास फैला पड़ा था..और अपोलो का पूर्ण नग्न एवं सुंदर देह कोलीनके सामने था.
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मनुष्य देह धारण करने में जुलिअस के शरीर को चुनना काफी पर्याप्त निर्णय था,
क्योकि जुलिअस का शरीर पूरी तरह स्नायुओ से सजा हुआ मजबूत और कसावदार था,
जो के कमरे के धीमे प्रकाश में अपने उपर चुपड़े हुए तेल की चिपचिपाहट से चमक रहा था.
उसके पेट की मांस-पेशियों के निचे मजबूती से हिलता-डुलता उसके पौरुष का वह उन्नत प्रतिक, अब तक कोलीन की हथेली से भी ज्यादा लम्बाई ग्रहण कर चुका था. 
और मोटाई भी ऐसी मात्रा में थी, जिसकी कोलीन ने कभी कल्पना भी नहीं की थी.
आस-पास के सभी बाल को दूर कर देने के कारण ऊस गुप्तांग का कद और भी विशाल लग रहा था.
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"बहुत ही सुन्दर और आकर्षक है यह.."  -कोलीन ने नज़दीक जाकर अपने घुटनों के बल उसके समक्ष बैठते हुए कहा- "इस सेवक को अपनी अनुमति दो ओ प्यारे देवता, के मैं इसकी उपासना कर सकू .."
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"अवश्य. मुझे इससे प्रसन्नता प्राप्त होगी, वत्स.." -अपोलो ने कहा, जब कोलीन ने अपने कांपते हुए हाथो से उस देव-लिंग को पकड़ कर अपने थिरकते हुए होंठो से चुमा.
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उसके मूह को वह स्वाद वह मर्दानी खुशबू की अजब सी चाहत पैदा हुई.
इस से उसे अपने हलक तक ले जाने में उसे कोई बाधा नहीं आयी.
काफी मोटा सा वह ओजार उसके गले से निचे उतरने पर कोलीन की नाक अपोलो के निचले पेट के अन्दर घुस गई, जिसके कारण वह सुगंध और भी तेज़ और तीव्र होती चली.
काम-वासना ने अब अपोलो के मन पर कब्ज़ा कर लिया.
विचित्र प्रकार के ध्वनी उसके गलेसे निकलने लगे- "आआआ......ह कोलीन, हाँ तुम मुझे उत्तम प्रकार से प्रसन्न कर रहे हो."
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उस दिव्य-दंड को मूह से बाहर निकाल कर, कोलीन फिर उसे अपने हाथों  से पकडे रखा.
फिर उसके बाद उसकी उपरी त्वचा को अपनी जीभ से ऊपर-निचे करते हुए उसे पुनः एक बार, अपने मूँह के भीतर प्रवेश करवा दिया.
और तब उस देवता ने मानव के स्वर में, मानव की भांति ही किलकारी भरी -"आआआ......... ह"
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ऊस आकर्षक मजबूत दैवी-लिंग के पुरे विस्तारको अपने थूक से तरल कर देने के बाद, कोलीन ने अपनी गति बढ़ा दी,
इसके फलस्वरुप उसे उन नमकीन चिपचिपे अमृत बूंदों से पुरस्कुत किया गया, जो के इसके बाद निकलने वाले गाढे, गर्म दिव्य-दुग्ध की घोषणा कर रहे थे.
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"आआआह कोलीन, इतना पर्याप्त है. थम जाओ यहीं.."   -अपोलो ने नम्र स्वर में आज्ञा दी, और अपने बलिष्ठ हाथसे ऊस विराट सिश्न पर से कोलीन के होंठ दूर हटाने चाहें- "तुम मुझे अति-शीघ्र अपनी चरम-सीमा पर ले जा रहे हो, मित्र. मुझे अगर तुम्हे लेना है, तो योग्य प्रकार से लेने दो."
और कोलीन के हाथ अपोलो के हाथों में लिए गए, उसे खड़ा होने में मदद करने के लिए.
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"हे देव, मेरी शैया अत्यंत गरीब ही सही, मगर वह इसी तरह की प्रतीक्षा में है.."  -कहते हुए व़ह तरुण अपने प्यारे देवता को अपनी शैया पर ले गया, जो के फर्श पर एक गद्दे के रूप में बिछाई गयी थी.
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मगर जैसे ही वह सुन्दर तरुण गद्दा ठीक करने के लिए निचे झुका, के देवता ने उसे पीछे कमर से जकड लिया.
फिर एक मजबूत हाथ ने उसके शरीर के उपरी भाग को नीचे की और धकेला, जब के दूसरे हाथ ने उसके निचले हिस्से को अपनी जगह पर स्थीर रहेने पर मजबूर किया.
युवक के दोनों हाथ उस गद्दे पर संपन्न हो गए, उसका सहारा पाने के लिये.
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अब वह दोनों देवताई हाथ उसके सुडौल नितम्ब के ऊपर थे. तब कोलीन ने महसूस किया के वह तेल दिया हुआ कठोर शूल उसके नितम्बो के बिच की दरार को चौड़ा करते हुए भीतर की और अतिक्रमण करने की कोशिश कर रहा है.
बलपूर्वक मार्ग बनाने के उसके प्रयास के कारण एक असह्य पीड़ा उठी उसके तन-बदन में.
मगर कोलीन ने कोई प्रतिकार नहीं किया.
अपने शरीर को तंग बनाते हुए वह बस खड़ा रह गया, उस दैवी प्यार की दस्तक को भीतर में सुनने की प्रतीक्षा में. 
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दोनों के बदन के संपर्क के बाद कोई ठहराव नहीं बना,
बल्कि वासना में प्रचूर उस देवता ने अपने प्रेम-तीर को भीतर-बाहर, भीतर-बाहर करना प्रारंभ कर दिया.
अपने कौमार्य के भंग होते वक़्त की पीड़ा को यह सुंदर तरुण आज फिरसे महसूस कर रहा था.
अपनी किशोरावस्था में भी वह कुछ वयस्क पुरुषो के साथ इस प्रकार की क्रिया में शामिल तो हुआ था,
मगर वह कोई पूर्ण प्रकार की क्रिया नहीं थी.
उसकी दोनों जांघो को तेल से चिपचिपा कर के एक दूजे के साथ जोरो से सटाकर, उन मर्दों ने अपना ओजार दोनों जांघो के बीच रगड़ने का कार्य किया था.
बस.. केवल उतना ही.
किसी पुरुष का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने का जो संतोष प्राप्त होता है, बस वही आनंद उसने उस काम-क्रीडा में प्राप्त किया था.
मगर उस क्रीडा के दरम्यान तो कोई सुख उसे नहीं मिल पाया था.
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मगर आज तो किस्सा कुछ भिन्न प्रकार का था.
जैसे जैसे वह सख्त कांटा उसका देह-दमन करता रहा, वैसे वैसे उसकी गुदा की अंदरूनी मांस-पेशियाँ, अपने देवता का सहयोग करती हुई शिथिल होती चली..
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कुछ ही पलों में देवता का वह चौड़ा और कठोर सांप उसकी गुदा के भीतर के उस बिंदु पर जा कर डसा, जिस बिंदु की हस्ती की जानकारी भी इस निर्दोष तरुण को नहीं थी.
और फिर,
भीतर के उस छोटे से मांस के लथ्थे पर हलके-हलके से प्रहार होने लगे.
मानो देवता अपने प्यारकी दस्तक दे रहा हो, और साथ साथ वह सब सुख भी दे रहा था, जिसकी लालसा में उसने अपनी उम्र बिता दी थी.
अपोलो ने सारे हुन्नर दिखा दिए, अपने इस सखा-भक्त को एक अदभूत अनुभूति करवाने के लिए.
कोलीन ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था के किसी देवता का लिंग, चाहे वह उरुष के रूप में ही क्यों न हो, उसके देह में प्रवेश करके उसे ऐसी सुखमय अनुभूति दे सकता है.
"बस… कोलीन.... अब मेरा…"  -उसके पीछे लिपटा हुआ देवता बडबडाया- "जो प्यार तुमने आज तक उस मूर्ति पर बरसाया है, वह सब प्यार आज अभी मैं लौटाने जा रहा हूँ ."
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"हाँ, मुझे दीजिये मेरे स्वामी, वह सब मुझे दीजिये अपने देह-रस के रुप में. मेरे शारीर पर अपना हक्क जताइये. उसे भर दीजिये अपनी गर्म गर्म ऊष्मा से. आप के प्रेम की आंच की अनुभूति करवाइए मुझे, मेरे देवता."
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"आआआह .. कोलीन.."
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"हाँ.. मुझे अपने दिव्य बीज से समृद्ध बना दिजिये.."
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" मेरा दिव्य-बीज ? हां, तुम इसे ऐसा ही कुछ नाम दे सकते हो...हाँ.." -अपोलो गुर्रा कर बोला,
और बिलकुल निर्दयता पूर्वक उसने कोलीन के पिछवाड़े में अपना मर्दानी डंडा घुसेड दिया.
उस तगड़े से सैनिक-शिकारी, जिसके शरीर-रूप का उपयोग किया था उसने, वह धक्कों पर धक्के देने लगा और इस मासूम युवक की माल-मत्ता के चीथड़े उड़ाने लगा.
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युवक कराहता रहा..
मगर उसे लगने लगा था के अब वह उस देवता की संपत्ति है, और वह चाहे उस प्रकार उसका उपयोग, उसका उपभोग कर सकते है.
और वैसे भी...
कोई नश्वर मानव कैसे किसी देवता की इच्छा का प्रतिरोध कर सकता है…?
कम से कम वह तो अवश्य नहीं..
उसने तो उस देवता की सुवर्णमय प्रतिमा को अनेको चुम्बन दिए थे.. 
तो अगर आज वह देव उसके साथ गुदा-मैथुन करना चाहते है, तो यह उनकी मर्ज़ी है…
उन्हे सहयोग देना ही उसका कर्त्तव्य है...धर्म है ..
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"ले… मेरे लंड  को ले ..अरे ओ सुंदर से मुर्ख, एक आदमी के लंडको अन्दर ले, और उसे एक देवता की तरह प्यार कर…" -भीतर की वासना अपोलो के मुख से कीड़े बरसाने लगी.
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लंड ...? आदमी..... का..लंड ..?  -कोलीन हलकासा करहा.
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अपनी स्वयं की चरम-सीमा के बिलकुल निकट वह पहुँच चुका था, किन्तु इन शब्दों के अर्थ ने उसे धुंधला सा ढंढोला.
मगर तब तक उसके पीछे लिपटे हुए उसके प्रेमी ने अपना गाढा सा वीर्य उसके भीतर छोड़ दिया, उसकी अंदरूनी दीवारों को गर्म गर्म आंच से ढीला और चिपचिपा बनाते हुए.
और फिर अपनी समस्त शक्ति द्वारा इस मासूम से तरुण को अपने शारीर के साथ सटा दिया.
इतनी अधिक मात्रा में वीर्य का स्खलन होते ही, और ऐसा वासना से प्रचूर प्यार पाते ही, कोलीन ने भी अपने प्यार की ऊँचाइयों को प्राप्त कर लिया.
उसका खुद का वीर्य भी पिचकारीयों की भाँती बहार निकलने लगा और सामने की दिवार, और बादमें निचे गद्दे को भिगोने लगा.
अपोलो ने कोलीन के डंडे को अपने हाथ में पकड़ लिया...
और उसके साथ वह इस प्रकार खिलवाड़ करने लगा के उसके एंड-कोष में से बचा-कूचा वीर्य भी बाहर आ गया.
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ढीली पड़ती हुई पकड़ से अपने आप को मुक्त करके बिस्तर पर लेट जाने में कोलीन को कोई मुश्किल नहीं हुई.
अपनी पीठ के बल लेटकर उसने ऊपर दृष्टी डाली उस शक्तिशाली रूप को और देखने के लिये..
वह चौड़ा सा सीना ताज़े श्रम की वजह से जोरों में उछल रहा था.
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"ओर…? कैसा लगा किसी देवता से प्यार पाना..?  " -अपनी साँसों पर काबू पा लेने के बाद ऊस आकृति ने कोलीन से पुछा.
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"पता नहीं.. अभी तक ऐसा अवसर प्राप्त नहीं हुआ मुजे .." -कोलीन किसी तरह अपने मुख पर एक उदास सी मुस्कराहट लाने में सफल हुआ.
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उसके चेहरे पर झुके हुए दुसरे चेहरे ने ऊस युवक के निराशा से विकृत हुए मुख को देखा और कहा- "तुम क्या कहना चाहते हो, मानव..?"
वह चाहता था के अपनी आवाज़ में वह कडापन आये, जिस से इस तरुण के मन में कुछ भय का संचार हो,
मगर ऐसा हुआ नही.
न तो उसकी आवाज़ में वह सख्ती आयी और न ही कोलीन पर उसका कोई प्रभाव पड़ा
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"मेरा मतलब है, के अगर आप मुझे पाना चाहते थे.. तो जुलिअस, आप इस से भी कुछ कम नाटकीय प्रकार से मुझ तक पहुँच सकते थे."
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"ओह.. किन्तु हर दिन प्रातःकाल में तुम्हे अपोलो की प्रतिमा से लिपटे हुए देखने के पश्चात भी ..?" -जुलिअस ने प्रश्न किया,
और फिर नम्र  में कहा- "अगर कोई आपत्ति न हो, तो कुछ देर के लिए मैं यहाँ तुम्हारे समीप लेट जाऊं ? कुछ अधिक ही थकान लग रही है,  दिनभर के शिकार का श्रम और फिर यह काम-क्रीडा का परिश्रम.."
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कोलीन ने दिवार की तरफ सरक कर कुछ जगह बना दी.
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"मुझे लगा के देवता के अलावा और किसी भी रूप में, तुम मेरा इतना स्वागत नहीं करोगे. मेरी इच्छा के वश नहीं होगे. तो मैंने अपने एक मित्र से बात करी, जो के झूस देवता का पुजारी है. उसने मुझे एक ऐसा चूर्ण दिया, जिसको अगर सूर्य के सामने पर्याप्त समय तक रखा जाए, तो वह प्रकाश को अपने आप में समेट कर रख लेता है, और फिर अँधेरे में वह सब रौशनी को बाहर की और फेंकता है. मेरा तो बस एक ही ध्येय था के तुम्हारे साथ कम-क्रीडा करके यहाँ से प्रयाण कर लूँ , मगर अब ऐसा कुछ नहीं लगता मुझे."
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"मुझे ज्ञात नहीं था, के मैंने आपके ह्रदय में मेरे लिए लालसा को जन्म दे दिया है.." -कोलीन ने उस शिकारी की और मासूमियत से देखते हुए कहा.
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हाँ, पर अब जब के तुम्हे इस बात का ज्ञात हो ही चूका है, तो मैं एक बात तुम्हे बताना चाहता हूँ मेरे छोटे मित्र, के मैं तुमपर अपनी प्राण न्योछावर करता हूँ. इतना चाहता हूँ और सदैव तुमसे अपनी मित्रता निभाना चाहता हूँ. तो अब तुम्हारा क्या उत्तर है ?"
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"यह बात आप तब कह रहे हो जुलिअस, जब आपकी चोरी पकड़ी गयी है. तो कितना विश्वास करू मैं आप की बातों का?"
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"देखो कोलीन, मैं तुम्हे महीनो से निहारता आ रहा हूँ, और तुम्हारी सुन्दरता से हमेशा प्रभावित रहा हूँ . तुमसे जब भी मैंने बात करना चाहा, तुमने कभी भी मुझसे योग्य प्रकार से उत्तर नहीं दिया. मैं निराश होता चला था.  तो ऐसी परिस्थिति में, मैं क्या करता?  तुम्हे ज्ञात नहीं है मेरे मित्र, तुम कितने सुन्दर हो..!"
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"क्या सुंदर होना अपराध है..?"
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"नहीं, ऐसा मैंने कब कहा ? किन्तु तुम्हारी सुन्दरता मेरे मन पर कितने तीर चलाती है, वह तुम क्या जानो.. उसकी तुलना में तो इरोझ-देव के काम-बाण भी तुच्छ है."
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"हाँ .. किन्तु इस से तो एक बात अब साफ़ है, के आप सिर्फ और सिर्फ मेरी  सुन्दरता से प्रभावित हो."
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"अब मैं और क्या कहूँ? तुमसे चर्चा में तो मैं जीत नहीं पाउँगा.  किन्तु इतना तो कह सकता हूँ के तुम्हारी सुन्दरता और मेरा पौरुष हम दोनों की मित्रताको बांधे रखेगा, सदा के लिए. तुम्हे भी तो मुझ जैसे किसी पुरुष की ही चाहत है, वरना जब अपोलो ने मेरे रूप में तुम्हारे पास आने का प्रस्ताव रखा तो तुम तुरंत ही तैयार नहीं होते." 
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"हाँ, मुझे आपके इस देह का आकर्शण है, मगर मैंने आपके रूपमें अपोलो को पाना इस लिए कुबूल किया था, क्यों के मुझे डर था के कहीं अपोलो देव किसी भेडिये या जानवर के रूप में आ कर मुझसे न मिले. मेरा तो बस एक ही ध्येय था के अपोलो के साथ मेरे सम्बन्ध बने. "
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"क्यों बनाना चाहते हो उस देवता से अपने शारीरिक सम्बन्ध ? क्या वें भी तुम्हे चाहते हैं ?"
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"काश के वें भी मुझे चाहते होते ..! तो आज आपके रूप में वें यहाँ जरुर होंते.."
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"क्या कभी उन्हें देखा है तुमने..?"
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"ऐसे भाग्य कहाँ मेरे.."
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"कोलीन, मेरे प्रिय मित्र, थोड़े बड़े हो जाओ तुम, अपने दिमाग में थोडासा ठहराव लाओ और फिर विचार करो के जिसे तुमने देखा तक नहीं, जो तुम्हे चाहता भी है या नहीं वह तुम्हे ज्ञात नहीं, वें तुमसे इतने दूर है के तुम चाह कर भी उसके निकट पहुँच नहीं पाओगे.. अरे, जो मानव तक नहीं, उसके पीछे भागने में कौनसी समजदारी है? "
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"मैंने उन्हें देखा नहीं,  मगर उनका रूप तो देखा है, जो उनकी प्रतिमा में छलकता है."
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"ओह.. यहीं पता चल जाता है मित्र, के तुम्हे किसी मार्गदर्शक की जरुरत है, जो तुम्हे सही समज, सही मार्ग दिखा सके, वास्तविकता से परिचय करवा सके.."
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"मतलब..? "
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"अरे ओ मेरे अबोध मित्र, यह जो मूर्ति, जिसके पीछे तुम बावले बन चुके हो, वह किसने बनायीं है? किसी मूर्तिकार ने ही न? जो के स्वयं एक मनुष्य ही है.. उस मनुष्य के मन में जो सूरत उभर आयी होगी, उस प्रकार से उसने एक पत्थर पर अपनी कला दिखा कर उसे अपोलो के रूप में ढाल दिया होगा. तुमने कैसे मान लिया के उस मूर्तिकारने अपोलो को देखा होगा ?"
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"मुझे नहीं ज्ञात .. अगर अपोलो वैसे नहीं भी दीखते होंगे तो भी मेरा ध्येय तो उनका प्यार पाना ही था ... मुझे मालूम है उन्हें सुन्दर लड़कों का आकर्शण है, जो के मैं हूँ . आपने भी तो अभी अभी स्वीकार किया है के मैं सुन्दर हूँ .. हूँ  ना?" -कोलीन अब कुछ ढीला पड चूका था.
वह अपना आत्मविश्वास खोने लगा था और बेतुकी बातो का सहारा लेने लगा था.
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"हाँ, मेरे मित्र, तुम सुन्दर हो .. अत्यंत सुन्दर हो.."
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जुलिअस ने उसे अपने निकट खिंचा लिया.. एक सहारा देने के लिए.. उसमें आत्मविश्वास भरने के लिए..
कोलीन ने कोई प्रतिरोध नहीं किया .
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"किन्तु तुमने जो सुना है वह दन्त-कथा है या वास्तविकता यह मैं नहीं जानता, क्यों के इस बात का कोई प्रमाण नहीं है मेरे पास. और मान भी लो के अपोलो और उनके प्रेमी के किस्से सत्य भी हो, तो यह बताओ के अपोलो ने कितने लड़कों को अपना प्रेमी बनाया है ?"
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"दो लडको के बारे में तो मैं जानता हूँ , हो सकता है इन से अतिरिक्त और भी २-४ हो, जिसके बारे में मैं या आप न जानते हो.."
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"हाहाहाहा ...तुम अपनी ज़िद नहीं छोड़ोगे, मेरे प्यारे मित्र.."  -कहते हुए जुलिअस ने कोलीन को अपनी छाती से लगा कर कस के अपनी भुजाओं में जकड लिया. 
कोलीन ने उसे ऐसा करने दिया, क्यों के अब वह भी जुलिअस की बातों से कुछ कुछ प्रभावित होता चला था. और यह पुरुषमें उसे आत्मिय्ता लगने लगी थी.
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"चलो मान लेते हैं के अपोलो के २…४…६… या १० प्रेमी होगे…बराबर ?"
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"हममम …" -कोलीन १० प्रेमी की बात से कुछ अधिंक ही संतुष्ट हुआ.
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"अब इस पृथ्वी पर कितने मनुष्य होंगे, जो तुम्हारी तरह उन्हें चाहते होंगे? सभी ने तुम्हारी ही भांति अपोलोकी सुन्दर प्रतिमा को देखा है, यह बात मत भूलना"
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"मुझे क्या पता ..?"
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"इस पृथ्वी पर करोडो मनुष्य है, इनमे से आधे स्त्री तो आधे पुरुष. पुरुषों में आधे युवान तो आधे वृद्ध होगे. आधे मेरी तरह विवाहित तो आधे तुम्हारी या तुमसे छोटी आयु के होगे. तो अब ऐसे लद्कों की संख्या लाखों तक पहुचती है .. कुछ समझ रहे हो ?"
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"जी …"
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"उन लाखों में से आधे लड़के भी तुम्हारी तरह चाहत के साथ उनकी पूजा करते होगे.."
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"किन्तु, सभी उन्ही की ही क्यों पुजा करेंगे? इनके अतिरिक्त और भी तो देवता है.."
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"हाहाहाहा..चलो तुम्हारी बात मान लेते है. फिर भी इस समस्त विश्व में दो-पांच हज़ार युवान तो अपोलो-देव के दीवाने होगे.  और अनेको तो मृत्यु भी पा चुके होगे, क्यों के अपोलो की हस्ती तो तो इस सृष्टि के सर्जन से पहलेकी ही है. तो अब बताओ इतने हज़ारो वर्षो में इतने हज़ारो तरुणों में से, उन्हों ने कितनो को चुना अपने प्रेमी के रूप में..? सिर्फ १० को..? तो फिर अब तुमने कैसे मान लिया के वें सिर्फ तुम्हे ही चुनेंगे इन बाकी हजारों को छोड़ कर ?  क्या कभी ऐसा कोई संकेत दिया है उन्हों ने तुम्हे ?"
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"नहीं , कभी नहीं , आप सही कह रहे हो जुलिअस, इतनी अधीक संख्यक युवकों के बीच मेरी औकात और हेसियत ही क्या ? कदाचित मैं ही उनके प्यार में प्रमत्त हुआ हूँ "
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"हां, और उन के पीछे पागल हो, जिन्हें तुमने वास्तविक रूपमें कभी देखा तक नहीं. उनके लिए तुम उसका प्यार ठुकरा रहे हो, जो तुम्हारे रूप का दीवाना है ?"
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कोलीन ने ऊपर देखा, जुलिअस की आँखों में...
कुछ देर तक देखता रहा. 
नहीं, वासना के कीड़े नहीं थे उन आँखों में..
एक सच्ची चाहत थी, उनमें.
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"कोलीन, उनके पीछे भागना जिसे तुम्हारा बिलकुल ख्याल नहीं, यह एक मुर्खता है. जो तुम्हे चाहता हो उसके प्यार को स्वीकार करने में ही समजदारी है. इसी में तुम्हें सुख और सन्तोष प्राप्त होगा, वरना पहेले वाले किस्से में तो बस दुःख और पीड़ा ही नसीब होगी. अपोलो को चाह कर, उनकी स्मृति और उनककी कल्पनामें तो अपनी निंद्रा को नष्ट करने अतिरिक्त क्या लाभ होगा तुम्हे..?  बताओ.."
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"उचित है आप की बात.."
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"तो अब एक अवसर मुझे भी दो कोलीन, तुम्हे सहारा दुंगा मैं. और मानसिक सुख भी. फिर देखना मैं तुम्हे असीम शारिरीक सन्तुष्टी भी उतनी ही दुंगा जितनी तुमने आशा भी नहीं की होगी.."
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"मगर आप तो विवाहित हो.."
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"हाँ .. परन्तु क्या अपोलो विवाहित नहीं हैं ?"
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" किन्तु वह तो देवता हैं."
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"और मैं मनुष्य हूँ. तुम्हारे जैसा ही मनुष्य. कोलीन, हवा में उड़ना बांध करो.. धरती पर आ जाओ.. मैं विवाहित हूँ.. परन्तु हमारे ग्रिक-समाज में किशोरों से सम्बन्ध रखना सामन्य बात है.. काश तुम और भी छोटे होते १५-१६ वर्षकी आयु के, तो मैं तुम्हे अपने घर में भी रख लेता था, और मेरी धर्म-पत्नी को कोइ आपत्ति भी न होती, क्यो के पुरुष और किशोर का सम्बन्ध एक प्रचलीत और स्वाभाविक बात हैं.. परन्तु मुझे किशोरोंमें कोई रुची नहीं है... मुझे सिर्फ शारीरिक-सुख नहीं चाहिए.. मुझे तो एक ऐसा युवा-पुरुष चाहिए जिस से मुझे देह की ऊष्मा के साथ साथ विचारों की ऊष्मा भी प्राप्त हो.. अपना हर्ष, सुख, दुःख ,पीड़ा अपनी उलझनें जिसके साथ मैं बाँट सकू उसकी शैया में लेटे लेटे, उसे अपनी भुजाओं में भरकर..'
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कोलीन ने अब की बार ऊपर नहीं देखा..
उसे अब जुलिअसकी आंखोमें देखने की कोई आवश्यकता नहीं थी.
वह जानता था, के ऊन आँखों में प्रेम ही छलकता है..
असीम प्रेम..
ऐसा प्रेम जिसकी उसे वर्षो से आवश्यक्त थी.
अपने मात-पिता के देहांत के बाद वह बिलकुल अकेला ही पड़ गया था इस अन्जान से नगर में..
अंतर्मुखी स्वबाव होने के कारण अंगत कहा जाए वैसा कोई मित्र भी नहीं था.
ऐसे में जो प्रेम उसके द्वार पर दस्तक दे रहा है, उसका सत्कार करना ही उसके हित में है, यह बात न समजने जैसा मुर्ख तो वह निश्चिन्त ही नहीं था.
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उसने अपना मस्तक जुलिअस की विशाल छाती में छुपा लिया.
अब यह वह मान चुका था के उसका खरा प्रेमी अपोलो नहीं, जुलिअस ही है.
जुलिअस ही अब उसका देवता है..
वह प्यारा देवता जो उसके प्यार को समज सकता है..
जिसके आगे प्रार्थना की नहीं, बस सिर्फ आँखे मिलाने की जरुरत है.
क्यों के उसका प्रेम शब्दोंकी नहीं, आंखोकी भाषा समजता है,
और वह तुरंत ही उसका प्रतिभाव भी देगा.
हकारात्मक प्रतिभाव देगा.
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कोलीन ने अब अपने दोनों के शारीर के ऊपर रजाई ओढा ली
और पुनः अपने आप को उन बलिष्ठ भुजाओं में सिमटा लिया...
जो के एक देवता की भांति उसे ऊष्मा प्रदान कर रही थी, इस अकेली और शीत-रात्रि में.    (सम्पूर्ण )
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